8 नवम्बर, सोमवार – 11 नवम्बर, गुरूवार
छठ पर्व प्राकृतिक सौंदर्य, पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्त करने के लिए मनाए जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। छठ पर्व या छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला लोक पर्व है। इस पुजा में नदी और तालाब का विशेष महत्व है यही कारण है कि छठ पूजा के लिए उनकी साफ सफाई की जाती है और उनको सजाया जाता है। इस वर्ष छठ पूजा का पर्व 8 नवंबर से 10 नवंबर तक मनाया जाएगा।
छठ पूजा वर्ष में दो बार पड़ती है, एक चैत्र मास और दूसरी कार्तिक मास में। कार्तिक छठ पूजा की तिथि कार्तिक शुक्ल षष्ठी से शुक्ल सप्तमी के बीच पड़ती है और दिवाली के 6 दिन बाद मनाई जाती है। षष्ठी तिथि के प्रमुख व्रत को मनाए जाने के कारण इस पर्व को छठ कहा जाता है। इस पूजा में सूर्य देव और छठी मैया की पूजा और उन्हें अर्घ्य देने का विधान है।
छठ पूजा का पहला दिन जिसे ‘नहाए खाए’ कहते हैं वहां से शुरु होने वाले इस पर्व में महिलाएं 36 घंटे तक निर्जला व्रत रखती हैं और संतान की सुख, समृद्धि और दीर्घायु की कामना के लिए इस दिन सूर्य देव और छठी मइया की पूजा करती है। कहा जाता है की छठी मैया निसंतानों को संतान प्रदान करती हैं। आइए जानते हैं कि चार दिनों तक चलने वाले छठ पर्व में हर दिन का क्या महत्व है?
छठ पूजा का पहला दिन:
नहाए खाए का दिन इस वर्ष 8 नवंबर सोमवार को है।
छठ पूजा का आरंभ ‘नहाए खाए’ से होता है, इस दिन घर की साफ-सफाई और पवित्रीकरण किया जाता है। उसके बाद भक्त अपने निकटतम नदी या तालाब में जाकर साफ पानी से स्नान करते हैं, नए वस्त्र पहनते है और पूजा करने के बाद चने की दाल, कद्दू की सब्जी और चावल को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। यह भोजन कांसे या मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है। व्रत रखने वाले इस दिन केवल एक बार ही भोजन करते हैं aur व्रत में तला हुआ खाना सख्त वर्जित है। व्रती के भोजन करने के बाद परिवार के सभी सदस्य भोजन करते हैं।
छठ पूजा का दूसरा दिन:
खरना/लोहंडा का दिन 9 नवंबर मंगलवार को है।
छठ का दूसरा दिन, जिसे खरना या लोहंडा कहते हैं ,छठ पूजा में खरना का विशेष महत्व है। खरना के दिन महिलाएं शाम को लकड़ी के चूल्हे पर गुड़ की खीर बनाकर भोग के रूप में चढ़ाती हैं। सभी भक्त सूर्य देव की पूजा करने के बाद इस प्रसाद को ग्रहण करते हैं। सभी परिवार के सदस्यों, मित्रों और रिश्तेदारों को खीर-रोटी प्रसाद के रूप में दी जाती है। खरना के दिन ठेकुआ नामक पकवान भी चढ़ाया जाता है। इस दिन से महिलाओं का 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरु हो जाता है। पौराणिक मान्यता है कि खरना पूजा के बाद ही छठी माया घर में प्रवेश करती है।
छठ पूजा का तीसरा दिन (संध्या अर्घ्य):
10 नवंबर, बुधवार को छठ पूजा का तीसरा दिन है। छठ के तीसरे दिन को संध्या अर्घ्य कहते हैं, इस दिन डूबते सूरज को अर्घ्य दिया जाता है जिसके कारण इसको ‘संध्या अर्घ्य’ के नाम से जाना जाता है।संध्या अर्घ्य के दिन व्रती महिलाएं निर्जला उपवास रखती हैं और परिवार सहित पूरे दिन पूजा की तैयारी करती हैं।
शाम के समय सभी परिवार के सदस्य नदी तट पर जाते है। वहां जाते समय परिवार की महिलायें नए वस्त्र धारण कर मैया के गीतों को गातीं हैं। महिलाओं के साथ परिवार के पुरुष चलते है जो की अपने साथ बेहेंगी यानि की एक बांस की टोकरी जिसमें पूजा की सामग्री होती है। उसे साथ लिए चलते है। इसके बाद नदी के किनारे छठ माता का चौरा बनाकर दीप प्रज्वलित किया जाता है और डूबते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा की जाती है।
छठ पूजा का चौथा दिन (उषा अर्घ्य)
11 नवंबर, गुरुवार को छठ पूजा का चौथा दिन है। छठ पूजा का चौथा दिन, उषा अर्घ्य या पारण दिवस कहलाता है,इस दिन सूर्य उदय के समय सूरज को अर्घ्य देते है इसलिए इस दिन को ‘उषा अर्घ्य’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन सूर्योदय से पहले व्रती-जन घाट पर सभी परिजनो के साथ पहुँचते हैं और उगते सूर्यदेव की पूजा करते है। महिलाएं सुबह नदी या तालाब के पानी में उतरकर भगवान सूर्य को अर्घ्य देती है। अर्घ्य देने के बाद व्रती महिलाएं सात या ग्यारह बार परिक्रमा करती हैं और फिर एक-दूसरे को प्रसाद बाँट कर अपना व्रत खोलती हैं।
छठ पूजा कैसे करें जानें संपूर्ण विधि:
छठ पर्व के दिन मंदिरों में पूजा नहीं की जाती है और ना ही घर की साफ-सफाई की जाती है।
पर्व से दो दिन पूर्व चतुर्थी पर स्नानादि से निवृत्त होकर भोजन किया जाता है। पंचमी को उपवास करके संध्याकाल में किसी तालाब या नदी में स्नान करके सूर्य भगवान को अर्घ्य दिया जाता है। तत्पश्चात बिना नमक का भोजन किया जाता है।
पूजा विधि:
षष्ठी के दिन प्रात:काल स्नानादि के बाद संकल्प लिया जाता है। संकल्प लेते समय इन मंत्रों का उच्चारण करें। “ॐ अद्य अमुक गोत्रो अमुक नामाहं मम सर्व पापनक्षयपूर्वक शरीरारोग्यार्थ श्री सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।”
पूरा दिन निराहार और निर्जल रहकर पुनः नदी या तालाब पर जाकर स्नान किया जाता है और सूर्य देव को अर्घ्य दिया जाता है। अर्घ्य देने की भी एक विधि होती है। एक बांस के सूप में केला एवं अन्य फल, अलोना प्रसाद, ईख आदि रखकर उसे पीले वस्त्र से ढंक दें। तत्पश्चात दीप जलाकर सूप में रखें और सूप को दोनों हाथों में लेकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए तीन बार अस्त होते हुए सूर्य देव को अर्घ्य दें।
“ॐ एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पया मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर:॥”
अर्घ्य देने की विधि:
छठ घाट की तरफ जाती हुए महिलाएं रास्ते में छठ मैय्या के गीत गाती हैं। इनके हाथों में अगरबत्ती, दीप, जलपात्र होता है। घाट पर पहुंचकर व्रती कमर तक जल में प्रवेश करके सूर्य देव का ध्यान करते हैं। संध्या कल में जब सूर्य अस्त होने लगते हैं तब अलग-अलग बांस और पीतल के बर्तनों में रखे प्रसाद को तीन बार सूर्य की दिशा में दिखाते हुए जल से स्पर्श कराते हैं। ठीक इसी तरह अगले दिन सुबह में उगते सूर्य की दिशा में प्रसाद को दिखाते हुए तीन बार जल से प्रसाद के बर्तन को स्पर्श करवाते हैं। परिवार के लोग प्रसाद पर लोटे से कच्चा दूध अर्पित करते हैं।
छठ पूजा से जुड़ी पौराणिक कथा
एक पौराणिक कथा बताती है की, प्राचीनकाल मे एक प्रियव्रत नामक राजा थे और उनकी रानी का नाम मालिनी था। विवाह के बाद बहुत समय तक उन दोनों की कोई संतान नहीं थी। वह इस बात से बहुत पीढ़ित रहते थे। एक दिन वह अपनी संतान प्राप्ति की इच्छा को लेकर महर्षि कश्यप के पास गए और उनसे अपनी मन की व्यथा कह सुनाई। महर्षि कश्यप ने उन्हे पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने का सुझाव दिया। राजा-रानी इस आशा की किरण को देख अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने पूरी श्रद्धा और विधि विधान से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। महर्षि कश्यप द्वारा रानी मालिनी को यज्ञ में भोग चढ़ाने के लिए खीर दी गई। उस खीर को रानी मालिनी को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करने को कहा गया जिसको उन्होंने सहर्ष ग्रहण किया। यज्ञ और प्रसाद के शुभ प्रभाव से रानी गर्भवती हुईं और उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया।
पुत्र प्राप्ति के समाचार से राजा प्रियव्रत और रानी मालिनी की खुशी की कोई सीमा न थी, परंतु उन्हे संतान का सुख कुछ समय के लिए ही मिला। अभाग्य से उनका पुत्र मृत पैदा हुआ। इस समाचार से राजा-रानी को अत्यंत पीढ़ा हुई। राजा अपने पुत्र के शव को लेकर श्मशान घाट पहुंचे। अपनी संतान के मृत पैदा होने का वियोग इतना भारी था की राजा प्रियव्रत ने अपने प्राण त्यागने का मन बना लिया। जैसे ही उन्होंने प्राण त्यागने चाहे वैसे ही वहां पर ब्रह्म देव की मानस पुत्री देवसेना देवी प्रकट हुईं।
देवी ने राजा प्रियव्रत को रोक कर उन्हे ऐसा न करने को कहा। उन्होने राजा को बताया कि वह षष्टी देवी हैं, उनकी उत्पत्ति सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से हुई है। वह लोगों को संतान का सौभाग्य प्रदान करती हैं। जो भी श्रद्धा से उनकी पूजा करता है वह उसकी सभी प्रकार की मनोकामनाए पूर्ण करती हैं। देवी ने फिर राजा से यह कहा कि यदि वह उनकी पूजा करेंगे तो उन्हे पुत्र-रत्न अवश्य प्राप्त होगा। माता षष्ठी की आज्ञा के अनुसार, राजा और उनकी पत्नी ने कार्तिक शुक्ल की षष्टी तिथि के दिन देवी षष्टी को पूरे विधि-विधान से पूजा और व्रत भी रखा। षष्ठी पूजा के फलस्वरूप उन्हें एक सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसके बाद छठी मैया का यह पावन पर्व मनाया जाने लगा।
यदि बात करें अन्य मान्यताओं की तो एक पौराणिक कथा के अनुसार, लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद, भगवान राम और माता सीता ने राम राज्य के स्थापना दिवस यानी कार्तिक शुक्ल षष्ठी पर उपवास रखा था। उन्होंने षष्ठी को सूर्य देव की पूजा की और फिर सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
वहीं एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य के पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों जल में खड़े रहकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वे एक महान योद्धा बने। छठ में आज भी अर्घ्य देने की यह विधि प्रचलित है।
कुछ कथाएँ ऐसी भी मिलती हैं जिनमें पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा सूर्य देव की उपासना का उल्लेख मिलता है। वह अपने परिवार के अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती थी और लंबी उम्र के लिए नियमित रूप से सूर्य पूजा करती थी। कहा जाता है की द्रौपदी द्वारा सूर्य देव की पूजा करने से ही पांडवों को अपना राज्य वापस मिला था।