नई दिल्ली: जोशीमठ के बाद चमोली जिले का कर्णप्रयाग भी खतरे के जद में आ गया है। बताया जा रहा है कि कर्णप्रयाग के घरों में भी दरारें देखी गई है। यहां 60 के करीब घरों में दरारें देखी गई है। वहीं आठ घरों की हालत खतरनाक बनी हुई है। जिसे देखते हुए इन घरों में रहने वाले आठ परिवारों को घर खाली करने का नोटिस दे दिया गया है।
कर्णप्रयाग के 14 हजार की आबादी वाले लोगों की बढ़ीं चिंताएं
कर्णप्रयाग में राजनगर, गांधीनगर, बहुगुणानगर, आइटीआइ और अपर बाजार रामलीला मैदान से मस्जिद परिसर तक भूधंसाव का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में जोशीमठ वासियों की स्थिति के बाद 14 हजार की आबादी वाले कर्णप्रयाग के लोगों की चिंताएं भी बढ़ गई है
भवन निर्माण के दौरान जेसीबी मशीनों से खोदाई करना, बना भूंधसाव का कारण

मिली जानकारी के मुताबिक, कर्णप्रयाग के स्थानीय निवासियों की शिकायत है कि वर्ष 2012 में मंडी समिति के भवन निर्माण के दौरान जेसीबी मशीनों से खोदाई की गई। उसी समय से नगर में भूधंसाव शुरू हो गया और लगातार मकानों में दरारें बढ़ने लगी। इसके बाद कई लोगों ने किराये के भवनों में रहना शुरू कर दिया। वहीं शहर में निकासी नालियों की व्यवस्था न होने से जरा सी बारिश होने पर पानी का रुख आबादी की ओर होने से भूधंसाव का खतरा बना रहता है।
जानिए कर्ण प्रयाग का इतिहास…

कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह तीर्थ स्थान अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्णप्रयाग पड़ा है। उमा मंदिर और कर्ण मंदिर यहाँ के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं। कर्णप्रयाग की संस्कृति उत्तराखंड की सबसे पौराणिक एवं अद्भुत नंद राज जाट यात्रा से जुड़ी है।
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है, जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये, क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी, क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर धीरे-धीरे यहाँ सब कुछ पहले जैसा सामान्य हुआ, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियाँ भी पुन: आरंभ हो गयीं।

कर्णप्रयाग का नाम हिदूं महाकाव्य महाभारत के केंद्रीय पात्र कर्ण के नाम पर है। कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था, इस प्रकार वह पांडवों का बड़ा भाई था। यह महान् योद्धा तथा दुखांत नायक कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ा। एक किंबदंती के अनुसार आज जहां कर्ण को समर्पित मंदिर है, वह स्थान कभी जल के अंदर था और मात्र कर्णशिला नामक एक पत्थर की नोक जल के बाहर थी। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार कर्णशिला पर अपनी हथेली का संतुलन बनाये रखकर किया था। एक दूसरी कहावतानुसार कर्ण यहां अपने पिता सूर्य की आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि यहां देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिया था। पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की संबद्धता पार्वती से भी है। उन्हें समर्पित कर्णप्रयाग के मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा पहले हो चुकी थी। कहावत है कि उमा का जन्म डिमरी ब्राह्मणों के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था, जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इन्हें ही उसका मायका माना जाता है तथा कपरीपट्टी गांव का शिव मंदिर उनकी ससुराल होती है।
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